मारवाड: छप्पना रो काल (1899) तब इंसान ही इंसान को खाने को हुआ था मजबुर Coronavirus

तब इंसान ही इंसान को खाने को हुआ था मजबुर 1899 का विभत्स काल छप्पनारोकाळ अर मारवाड री दशा|

प्रकृति के प्रकोप को मनुष्य सदियों-सदियों से ही झेलता आया हैं | इसका असर कभी कम तो कभी-कभी क्षेत्र के सम्पुर्ण जनजीवन को मौत के मुंह तक ले जाना वाला रहा हैं | ऐसा ही प्रकृति का प्रकोप #सन्1899 में हुआ था | जिसे ‘छप्पना रो काळ’ कहा जाता हैं | आज भी उस काळ में हुई दशा के बारे में सुनाने वाले बुजुर्ग कांपने लगते हैं | क्योकि उनके बाप-दादा जो उस काळ के प्रकोप से येन-केन प्रकारेण बच गये थे, वो उन्हें काळ में हुई दशा के बारे में बताते थे |

इस वर्ष उत्तरी भारत के अन्य प्रांतो में भी घोर अकाल था | सामान्यत: मारवाड के लोग विशेषकर कृषक व पशुपालक अपने परिवार व पशुओ सहित अकाल के समय मालवा, उत्तर प्रदेश व सिंध की ओर चले जाते थे | लेकिन इस वर्ष यहां भी अकाल था, अतः इन्हें निराश होकर वापस लौटना पडा़ |

लगभग चौदह लाख मवेशी मर गये, जो यहां के मवेशीयों की आधी संख्या थी | राज्य सरकार ने काफी चारा व धान बाहर से मंगवायां, लेकिन यातायात की पर्याप्त सुविधाएं न होने के कारण काफी मवेशी व मनुष्य मर गये | कहा जाता हैं कि इस काळ का इतना प्रकोप हुआ की झोपडी से लेकर महल के निवासी सडको पर आ गये और दानें-दानें के मोहताज हो गये | ये काल सब से लिए आफत भरा था |

राज्य सरकार ने इस वर्ष लगभग सवा छत्तीस लाख खर्च कीये | राज्य ने अकाल के समय तथा उसके बाद के प्रभाव को दूर करने के लिए अंग्रेजी सरकार से तीस लाख रूपये का कर्जा लीया था | राज्य की आर्थिक स्थति काफी गिर गई | मंहगाई लगभग 25 प्रतिशत तक बढ गई थी |

जोधपुर शहर में 25 अगस्त, 1899 को अनाज के भाव इस प्रकार हो गये- गेहूं 6सेर , बाजरी 6.5 सेर, जवार 8सेर, मूंग 4 सेर व घास 11 सेर तक हो गई थी | भयंकर अकाल के कारण जोधपुर में लूटखसोट चालू हो गई थी | इस कारण सभी महकमों की तिजोरियां महकमा खास में रखवाई गई थी | और इस तरह मई-जून 1900 में गर्मी की अधिकता के कारण तथा अकाल से कमजोर हुएं लोगो को हैजा का शिकार होना पडा़ |

हजारो लोग हैजे के कारण मर गये | इस वर्ष वर्षा भी अधिक हुई व खेतो में फसलें भी अच्छी हुई, लेकिन फसल काटने वाले ही नही थे | इसलिए इस वर्ष भी धान की कमी रही | अकाल, हैजा व मलेरिया के प्रकोप के कारण 1901 की जनगणना के अनुसार यहां की आबादी 19,38,565 रह गई | जबकि 1891 की जनगणना में मारवाड की जनसंख्या 25,28,178 थी | इस प्रकार 1899 व 1900 इन दो वर्षो में यहां की सामाजिक व आर्थिक स्थति अत्यंत दयनीय हो गई थी |

इसी वर्ष जोधपुर महाराजा सरदार सिंह जी ने अपनी जनता को अकाल से राहत व रोजगार देने के लिए बाडमेंर-बालोतरा 60 मील रेल लाईन चालु करवाई गई | इतनी बडी रेल लाइन चालू करने की अनुमती अंग्रेजी सरकार ने पहली बार एक देशी रियासत को दी थी | इस अकाल में जोधपुर महाराजा ने अपनी प्रजा के लिए धान के भंडार खोल दिये थे, लेकिन भयंकर अकाल में कुछ ही समय में चौतरफा त्राही-त्राही मच गई |

इस काळ को लेकर उस समय की दशा को महाकवि ऊमरदान ने इस तरह बताया –

“माणस मुरधरिया माणक सूं मूंगा !
कोडी कोडी़ रा करिया श्रम सूंगा !
डाढी मुंछाला डळियां में डळिया !
रळिया जायोडा़ गळियां में रूळिया !
आफत मोटी ने रैय्यत रोवाई !

अर्थात मरूधर के मनुष्य (मारवाडी) जो मणिक और मुंगा आदि रत्नों के समान महंगे थे, जो एक-एक कोडी़ को मजदुरी करते दिखाई दिये | गर्व भरी डाढी- मुंछों वाले टोकरी उठाते थे | महलों में पैदा होने वाले गलियों में भटक रहे थे | वह छप्पन का समय भारी आफत के साथ आया ! प्रजा रोटी-रोटी को रोती रही |

कहते हैं उस वक्त धान की अत्यंत कमी के कारण नीम व खेजडी की साल तक खाने को मजबुरी आ पडी थी | इस बारे में मैंने गांव के बुजुर्गों से जानकारी ली, तो बताया की उनके पुर्व के बुजुर्ग जो उस काळ को चीर कर बाहर निकले थे | वो बताते थे की “छप्पने” के समय लोगो के पास पैसे व सोने चांदी की मुहरे भी थी, लेकिन वो भी इधर-उधर लेकर घुमते रहे | धान की इतनी कमी थी कि स्वर्ण मुहरो के बदले भी कोई धान देने को तैयार नही था | क्योकि जिनके पास धान था वो खुद चिंतित थे, कि न जाने काळ कीतना लंबा चलेगा |

छप्पनियां काळ के बारे में बुजुर्गों से सुने अनुभव शेयर करते हुए मंगलाराम बिश्नोई बताते हैं कि –

” लोग अनाज की पोटली हांडी में घुमाकर उसे ‘अन्नवाणी’ बना देते और उस पानी में खेजडी के ‘छोडा ‘ (छाल) उबाल कर खाते |
लोग इतने कमजोर पड गये थे कि घरों में झोंपडों में अंदर ‘वळों” से रस्सी लटकाये रखते और उसे पकड कर ही खडे हो पाते थे |
एक वीभत्स किस्सा भी है-

” एक माँ ने कैरडे के मळे में अपनी संतान को जन्म देकर खुद ही खा लिया |”
और मंगलाराम जी कहते हैं कि मारवाड की मानवता को झकझोर कर रखने वाली इस छप्पनिया की विभीषिका के बारे में किसी साहित्यकार, कवि, ख्यात लेखक की कलम नहीं चली, न ही वाणी में सरस्वती विराजी |
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आज जब हम प्रकृति के छोटे-छोटे प्रकोप से डर व सहम जाते हैं | तब बुजुर्गो से सुनते आये उस छप्पने काळ की याद अनायास ही आ जाती हैं | क्या दौर रहा होगा ? जब सब तरफ त्राही-त्राही मची होगी |
खैर प्रकृती करे ये काळ व ये आपदाये कभी ना आये

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